मनोविज्ञान और हम
Sunday, September 18, 2016
जिंदगी के रंग - कविता 8
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"जिंदगी के रंग ( कविता) 8"
जिंदगी ने ना जाने कितने रंग बदले।
रेगिस्तान के रेत की तरह
कितने निशां बने अौर मिटे
हर बदलते रंग को देख ,
दिल में तकलिफ हुई।
काश, जिंदगी इतनी करवटें ना ले।
पर , फिर समझ आया ।
यही तो है जिंदगी।
1 comment:
Manvendra Singh
September 18, 2016 at 9:50 AM
very nice
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very nice
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