तारापीठ ( यात्रा वृतांत)
16 नवम्बर, रविवार, समय दोपहर 12:15. मैं, अधर, हमारे पारिवारिक मित्र श्री सी.ए.के. मिश्रा एवं
श्रीमती मिश्रा (आरती जी) तथा कार चालक अरुण जी तारापीठ पहुँचे। यह यात्रा श्री मिश्रा जी के सौजन्य से संभव हुआ। मैं
और अधर लखनऊ से दुर्गापुर आए हुए थे। दुर्गापुर से हमलोग सड़क मार्ग से तारापीठ गए। तारापीठ, साहपुर ग्राम पंचायत,
मारग्राम पुलिस स्टेशन का एक छोटा सा गाँव है|तारापीठ बीरभूम जिले में है।यहाँ तारापीठ रेलवे स्टेशन है। रामपुर हाट
निकटतम बड़ा रेलवे स्टेशन है जो यहाँ से लगभग 5-6 किमी दूर है। आसनसोल रेलवे स्टेशन भी यहाँ से करीब है।
यहाँ रुकने के लिए अनेक होटल हैं। मंदिर मेँ दर्शन के दो मार्ग है। पहला सामान्य दर्शनार्थियों के लिए जो निःशुल्क है।
दूसरा मार्ग उन विशिष्ट लोगों के लिए है जो 200/ रु का प्रवेश टिकिट लेते हैं। उन्हे आविलम्ब दर्शन की सुविधा प्राप्त
होती ही। मंदिर दोपहर मेँ एक से दो बजे बंद कर दिया जाता है। इस समय माँ को भोग लगाया जाता है। यह हमलोगों
के लिए एक यादगार यात्रा थी। तारापीठ के पहले हमलोगों ने वक्रेश्वर महादेव का दर्शन भी किया। शिव (वक्रेश्वर महादेव)
और शक्ति (माँ तारा) का दर्शन सौभाग्य की बात है। वक्रेश्वर महादेव के मंदिर का स्थान गर्मपानी के नाम से भी जाना
जाता है।
मंदिर और देवी का रूप - तारापीठ भारत भर में स्थित 51 पवित्र शक्ति पीठ में से एक है। पश्चिम बंगाल में द्वारका नदी के तट पर तारापीठ हरे-भरे धान के खेतों के बीच मैदानों में स्थित है। यह झोपड़ियों और तालाबों वाला एक ठेठ बंगाली गांव है। मंदिर लाल ईंटों की मोटी दीवारों से निर्मित है। इसमें कई मेहराब और एक शिखर है। देवी गर्भगृह में स्थित है। गर्भगृह में माँ तारा की जिस मूर्ति को भक्त सामान्य रूप से देखतें है, वह वास्तव मेँ एक तीन फीट की धातु निर्मित मूर्ति है। जिसे वास्तविक पाषाण प्रतिमा पर सुशोभित किया जाता है। इसे देवी का राजवेश कहा जाता है।मान्यता है कि देवी शिला मुर्ति के रुप में सभी को दर्शन नही देना चाहती थी। अतः उन्होने एक अन्य आवरण या राजवेश भी उपलब्ध करवाया। यह राजवेश देवी का सौम्य रूप है। देवी के माथे पर लाल कुमकुम की बिंदी है। पुजारी इस कुमकुम / सिंदूर का एक तिलक तारा के आशीर्वाद स्वरूप भक्तों के माथे पर लगाते हैं। माँ तारा की मौलिक मूर्ति देवी के रौद्र रूप को दिखाता है। इसमें माँ तारा बाल शिव को दूध पिलाते दर्शाया गया है। यह मूर्ति पत्थर की है। देवी के गले मेँ मुंडमाल है। मुख और जिव्हा रक्तरंजित है। चार हाथों मेँ विभिन्न हथियार सुशोभित है। जब 4:30 बजे सुबह मंदिर खुलता है
केवल भाग्यशाली भक्तों को देवी के इस रूप के दर्शन का मौका मिलता है। मंदिर के परिसर में पवित्र “जीवित तालाब” निर्मित है।किवदंती है कि इस ताल में मृत को भी जीवित करने की शक्ति थी।
चढ़ावा या भोग - यहाँ भक्तगण समान्यतः नारियल, पेड़ा, सिंदूर, अगरू, चन्दन, गुलाबजल, आलता, फल, चुनरी, कमल,
कनेर, नीला अपराजिता, जवा पुष्प या गेंदे की माला, बेलपत्र, नीली या लाल साड़ियां चढ़ाते हैं।देवी को रुद्राक्षा माला भी
प्रिय है क्योकि मान्यता है कि रुद्राक्ष भगवान रुद्र (शिव का क्रोधी मुद्रा) के नेत्र के अश्रु बिन्दु से निर्मित हुए है। कच्ची
हल्दी का माला और नींबू की माला भी देवी को प्रिय है। गर्भगृह के ठीक बाहर माँ तारा के युगल चरण द्व्य बने हैं। जिस
पर आलता डाला जाता है।
तांत्रिक पद्धति के अनुसार कुछ भक्त आसव या मदिरा की बोतलें और अस्थि निर्मित माला का भी प्रयोग पूजा के
लिए करते हैं। यहाँ छाग या खस्सी की बलि भी दी जाती है। मछली, खीर, दही, शहद मिश्रित चावल, शोल मछली,
खस्सी का मांस आदि भी देवी को प्रिय है। वृहदनील तंत्र के दूसरे अध्याय में इसका निम्नलिखित वर्णन मिलता है-
मधुपर्कं विशेषेण देविप्रीतिकरं परम्। सन्देश-मुष्णं दद्दाच्च लड्डू-कादि-समन्वितम् ॥२-८३॥ पायसं कृसरं दद्दाच्छर्करा-गुडसंयुक्तम्। आज्यं दधि मधुन्मिश्रं तथान्नानि निवेदयेत् ॥२ -८४॥ शाल-मत्स्यं च पाठीनं गोधिका-मंस-मुत्तमम्। अन्नं च मधुना मिश्रं यंत्राद् दद्दाच्च मंत्रवित् ॥२-८६॥ छाग-देवी माँसं तथा देवी रोहितं मतस्य-भर्जितम्। योनिमुद्रां प्रदर्श्याथ आज्ञां प्राप्य यथाविधि ॥२-८७॥
महाश्मशान भूमि
बंगाल वामाचार, तंत्र साधना
और शक्ति
उपासना का प्राचीन केंद्र है। तारापीठ
मेँ भी तंत्र साधना प्राचीन कल से प्रचलित है। श्मशान भूमि शक्ति उपासना का अभिन्न अंग माना जाता है। श्मशान भूमि जंगल परिवेश के बीच, सामाजिक जीवन और व्यवस्था
से दूर होता है। तारापीठ मेँ श्मशान भूमि शहर की सीमा के अंत में नदी किनारे पर स्थित है। इस श्मशान भूमि और मंदिर में बामखेपा अवधूत ने एक भिक्षुक के
रूप में साधना किया था। उन्होने माँ
तारा की पूजा करने के लिए अपने पूरा जीवन समर्पित कर दिया। उनका आश्रम भी मंदिर
के करीब स्थित है। मंदिर
परिसर मेँ उनकी मूर्ति स्थापित है। अपने गुरु संत कैलाशपति के संरक्षण मेँ बामखेपा अवधूत ने योग का ज्ञान और तांत्रिक सिद्धियाँ प्राप्त की थीं।
तांत्रिक साधकों का मानना है कि माँ उग्र तारा का पसंदीदा स्थान श्मशान भूमि है। इसलिए बहुधा देवी तारा की
मूर्ति श्मशान भूमि के आस-पास पाई जाती है। माँ तारा श्मशान भूमि, हड्डियों और कंकाल की ओर आकर्षित
होती है, इस विश्वास के साथ तांत्रिक साधक यहाँ साधना करने के लिए आते है। कई साधु स्थायी रूप से यहां रहते हैं।
राख लिप्त साधु बरगद के पेड़ के नीचे या मिट्टी के झोपड़ियों मे रहते हैं। उनकी झोपड़ियों के दीवार तारायंत्र, लाल सिंदूर
आरक्त खोपड़ी से अलंकृत होती है। प्रवेश द्वार पर गेंदा की माला और खोपड़ी से सजी माँ तारा की आकृति, त्रिशूल और
जलती हुई धुनी आम दृश्य है। वे मानव के साथ-साथ गीदड़ों, गिद्धों की खोपड़ी और साँप की खाल / केंचुली से भी
झोपड़ियों को सजाते है। पूजा और तांत्रिक उद्देश्यों के लिए इन वस्तुओं का इस्तेमाल होता हैं।
किंवदंतियां- मंदिर और देवी से संबंधित इस जगह की उत्पत्ति और महत्व पर कई किंवदंतियां हैं।
1) एक प्रसिद्ध कथा इस शक्तिपीठ से संबंधित है। ऐसी मान्यता है कि यहाँ सती की तीसरी आंख का तारा गिरा था जो शक्ति, विनाश और क्रोध का प्रतीक है। सती भगवान शिव की पहली पत्नी थी। सती के पिता ने विराट यज्ञ
का आयोजन किया। पर यज्ञ के लिए शिव और सती को आमंत्रित नहीं किया था। फलतः सती ने अपमानित महसूस किया और सती ने यज्ञ की आग में कूद कर अपनी जान दे दी। इस से व्यथित, विछिप्त शिव ने यज्ञ कुंड से सती के मृत शरीर को उठा लिया। सती के मृत शरीर ले कर वे अशांत भटकने लगे। शिव सति के मृत देह को अपने कन्धे पर उठा ताण्डव नृत्य करने लगे। फ़लस्वरुप पृथ्वी विध्वंस होने लगी। समस्त देवता डर कर ब्रम्हा और विष्णु के पास गये और उनसे समस्त संसार के रक्षा प्रार्थन की। विष्णु ने शिव को शांत करने के उद्देश्य से अपने चक्र से सती के मृत शरीर के खंडित कर दिया। फलतः सती के शरीर के अंग भारत उपमहाद्वीप के विभिन्न स्थानों पर गिर पड़े। शरीर के अंग जहां भी गिरे उन स्थानों पर विभिन्न रूपों में देवी की पूजा के केंद्र बन गए और शक्तिपीठ कहलाए। ऐसे 51 पवित्र शक्तिपीठ हैं। तारापीठ उनमें से एक है। माना जाता है कि यहाँ सती के शक्तिशाली तृतीय नेत्र का तारा गिरा था। इसलिया यह तारापीठ कहलाया और शक्ति, विनाश और क्रोध का प्रतीक माना गया। इसलिए मान्यता है कि यह साधन करने योग्य शक्तिशाली शक्ति पीठ है।
२) दूसरी कहानी यहाँ स्थापित देवी के मौलिक मूर्ति से संबन्धित है। ब्रह्मांड को बचाने के लिए महासागरों के मंथन से
निकला हलाहल यानि गरल पान शिव ने किया। जहर के प्रभाव से बचने के लिए शिव ने गरल को गले मेँ धारण कर
लिया। जिससे उनका गला नीला पड़ गया और शिव नीलकंठ नाम से पुकारे जाने लगे। इस कालकूट जहर को पीने से
उन्हे गले में तीव्र जलन होने लगी। तब तारा के रूप में सती ने जहर के प्रभाव से शिव को राहत देने के लिए अपना
स्तनपान कराया। उन्होने शिव को बालरूप में परिवर्तित कर दुग्धपान करवाया। जिससे शिव के गले की जलन शांत हुई।
तारापीठ की मौलिक पाषाण प्रतिमा में यहीं रूप चित्रित है।
3) एक अन्य कहानी इस प्रकार है- ऐसी मान्यता है कि महर्षि वशिष्ठ, देवी तारा की पूजा करने और हिंदुओं के बीच
उसकी पूजा के महत्व का प्रसार करने वाले पहले
व्यक्ति थे। सतयुग में महर्षि वशिष्ठ के पिता भगवान ब्रह्मा ने
उन्हें सिद्धि प्राप्त करने के लिए देवी तारा की पूजा करने कहा। ब्रह्मा जी ने
अपने पुत्र वशिष्ठ को तारा मन्त्र की
दिक्षा दी और मन्त्र सिद्ध करने
कहा। पिता के आज्ञानुसार वशिष्ठ निलान्चल
पर्वत पर आये और देवी माँ की साधना
करने लगे। परन्तु सिद्धि नहीं प्राप्त हुई।तब वे अपने पिता ब्रह्मा के पास गये। ब्रह्मा
जी ने उन्हें निलान्चल छोड नील-पर्वत
पर तपस्या करने कहा। परन्तु
उन्हे इस बार भी सफलता नहीं मिली। अतः उन्हे लगा कि इस
मंत्र को सिद्ध नही किया जा सकता है। तभी आकाशवाणी हुई - "वशिष्ठ तुम चीन देश जाओ और वहाँ भगवान बुद्ध से साधन का सही विधि
और क्रम जान कर मेरी अराधना करो।"वशिष्ठ मुनि चीन पहुंचे। वहाँ मुनि ने देखा कि भगवान बुद्ध मदिरा, माँस, मतस्य, नृत्य करती हुई नृत्यागंनायों के साथ व्यस्त है। यह देख वे मायूस हो कर वहाँ से लौटने लगे। तब बुद्ध ने उन्हे रुकने कहा। जब वशिष्ठ मुनि ने पुनः बुद्ध की ओर देखा तो वो चकित रह गये। भगवान बुद्ध शान्त बैठे थे और ध्यान योग में थे। उसी तरह नृत्यागनाऐं भी आसन लगा कर बैठी थीं, मदिरा, माँस, मतस्य आदी सभी वस्तुये, पुजन सामाग्रियों में परिवर्तित हो गयी थी। अन्तर्यामी बुद्ध ने वशिष्ठ मुनि को वामाचार पूजन विधि बताया। उन्होने बताया कि बैधनाथ धाम के १० योजन पूर्व, वक्रेश्वर के ४ योजन ईशान, जहन्वी के ४ योजन पश्चिम, उत्तर वाहिनी द्वारीका नदी के पूर्व, देवी सति का उर्ध नयन तारा अर्थात ज्ञान रुपि तृतीय नेत्र गिरा है। वहाँ पन्च मुण्डी आसन बना कर साधना करो। पन्च मुण्डी का अर्थ है दुर्घटना या आकाल मृत्यु को प्राप्त मनुष्य, कृष्ण सर्प, लंगुर, हाथी और उल्लू की खोपडी से बना हुअ आसन। वहाँ देवी तारा माँ के चरण चिन्ह अंकित है। उस स्थान पर देवी माँ के मन्त्र का ३ लाख जप करो और पन्चमकार विधि - मदिरा, माँस, मतस्य, मुद्रा तथा मैथुन से पूजा करो। तब तुम्हे देवी माँ की कृपा प्राप्त होगी।
वशिष्ठ मुनि ने बुद्ध के बताए विधि से पन्च मुण्डी आसन का निर्माण किया। फिर देवी अराधना की। फ़लस्वरुप उन्हें देवी माँ ने एक अत्यंत उज्जवल ज्योति के रुप में दर्शन दिया और पूछा कि तुम किस रुप में मेरा साक्षात दर्शन करना चाहते हो। वशिष्ठ मुनि ने उन्हें जगत जननी के रुप में देखने की कामना की। तब देवी माँ ने वशिष्ठ मुनि को भगवान शिव को बालक रुप में अपना स्तन पान करते हुये दर्शन दिया। देवी माँ ने वशिष्ठ
मुनि से वर मागने के लिये कहा। वशिष्ठ मुनि ने उत्तर दिया – आपका दर्शन मेरे लिये सब कुछ है। आप अगर कुछ देना
चाहती है तो यह वर दिजिये कि आज के बाद इस आसन पर कोई भी साधक, आप के मन्त्रो का ३ लाख जप कर सिद्धी
प्राप्त कर सके। देवी माँ ने वशिष्ठ को कामनानुसार वर प्रदन किया। माँ तारा ने अपने भगवान शिव को बालक रुप में
स्तन पान कराते स्वरूप को शिला में परिवर्तित कर दिय तथा वही निवास करने लगी।
4) यह किवदंती तारापीठ के आलौकिक मंदिर के स्थापना से संबन्धित है। लगभग १२०० साल पहले देवी माँ के स्थान कीपहचान जय दत्त नाम के एक व्यापारी ने किया। जय दत्त अपने पुत्र और साथियों के साथ द्वारका नदी के जल पथ सेव्यापार कर लौट रहा था। खाने-पीने का सामान लेने के लिए उन्होने द्वारिका नदी किनारे, देवी माँ के निवास स्थान परनाव रोका। दुर्भाग्यवश वहाँ जय दत्त के पुत्र की सांप काटने से मृत्यु हो गई। दुखी जय दत्त पुत्र के शव नाव पर रख शोकमें डूब गया। उसके विलाप को सुनकर देवी ने नाव की खिड़की से जय दत्त से पूछा कि इस नाव में क्या हैं? पुत्र मृत्युसे शोकाकुल जय दत्त ने बेसुधी में कह दिया- नाव में भस्म भरा पड़ा हैं। तत्काल नाव का सारा सामान राख़ में बदलगया। इस दौरान एक अन्य चमत्कार भी हुआ। उसके साथी नाविकों ने भोजन के लिए पास के तालाब से शोल मछलीपकड़ी। उन्होने उसे काट कर साफ़ किया और उसे धोने के लिए तालाब के जल में डुबाया। कटी हुई मच्छली अपने आप जुडकर जिवित हो कर तालाब में छलांग लगाकर भाग गई। नाविकों ने जय दत्त यह अद्भुत घटना सुनाई। तब जय दत्त नेपुत्र के शव को उस तालाब में डाला। चमत्कारिक रूप से वह जीवित हो गया। सब समझ गये कि इस स्थान पर अवश्य हीकोई आलौकिक शक्ति है। जय दत्त ने उस स्थान पर रह कर उस आलौकिक शक्ति को जानने का प्रण कर लिया। उसनेअपने पुत्र सहित कर्मिको को घर लौटा दिया। जय दत्त भक्तिभाव से उस आलौकिक शक्ति को ढूँढने लगा। उसकी भक्तिऔर पागलपन देख भैरव शिव ने उन्हे दर्शन दिये और उस स्थान से सम्बन्धित समस्त गाथायें सुनाई और उन्हे देवीके मन्त्रो की दिक्षा दी। जय दत्त ने तालाब अर्थात जिवित कुण्ड के किनारे देवी माँ का भव्य मन्दिर बनवाया और शिलामुर्ति को उस मन्दिर में स्थपित कर दैनिक पूजा का प्रबंध किया। मान्यता है कि देवी शिला मुर्ति के रुप में सभी को दर्शननही देना चाहती थी। अतः उन्होने एक अन्य आवरण या राजवेश भी उपलब्ध करवाया। यह राजवेश देवी का सौम्य रूप है।माँ ने कहा कि शिला मुर्ति को प्रतिदिन से आवरण से ढक दिया जाये। जय दत्त ने देवी माँ के बताये अनुसार मन्दिर कानिर्माण करवाया। जिस दिन मन्दिर महा पूजा के साथ सभी भक्तों के लिये खोला गया। जय दत्त ने देखा उस शिला मुर्तिके साथ एक अन्य, देवी माँ का भव्य स्वरुप या राजवेश वहाँ पर है। आज भी देवी माँ के बताये हुये क्रम और विधि केअनुसार पूजा अराधना और पशु बली होती है तथा देवी के निर्देशानुसार राजवेश को मूर्ति पर धारण कराया जाता है। माँ ताराके दर्शन के बाद मस्तक श्रद्धा से नत हो जाता है और मन में मंत्र गुंजने लगता है-
“सर्वमङ्गलमङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके। शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते॥”
डॉ रेखा रानी